लगी भूक भुला देती ज़मीर को 
संगीन वक्त ऐसा बस पैसा पीर हो 
तक़दीर को बाँदा कितना कोसय 
अंधेपन में न देख सके 
बरी तस्वीर को 
किसी की ईद जो है किसी का मलाल 
किसी की इज़्ज़त प्रय उठ रहे सवाल 
किसी का मुल्क बना उसी का मज़ार 
उठा डे यूँ आवाज़ नहीं किसी Ki मजाल 
कोण ज़िम्मेदार ? किस के ये हाथ में ?
जवाब मिलता नहीं किसी भी किताब में 
और हार के हकात से डे हाथ चोर 
इस भाग डेढ़ में कोी क्यों तेरा हिसाब डे ?
आना से ये जल रहे रिश्ते 
बता ऐतेबार हो तो किसपे ?
भाइयों के खून से बैंक चेक़ुएस ये लिखते 
मुखातिब हैं दिल के बेहिस से ये हिस्से 
और फिट से ये बोलेन गेय मुनाफ़िक़ 
सच अब में इन सब की राग राग से वाकिफ 
और कब तक ये मक़तब भी जा के 
साल O साल बिटा के 
तब भी निकलें गेय जाहिल के जाहिल 
वो देख शोर हो रहा बाहिर 
ढून्ढ वो जो तरप रही कोण उसका क़ातिल 
खून में जो लिपट चुकी मौत हो रही ज़ाहिर 
वो बच भी गयी तो क्या मिले गए उसे साहिल ?
उस पागल का अपना कसूर था 
क्या चार से निकल कर कुछ स्कूल उसका दूर था 
उसके उन कपड़ों पे बनता था घूरना ?
उसका कसूर था के नशे में वो चूर था ?